काँप रही है धरती सारी, अम्बर भी चिल्लाता है,
मानवता की चिता जलाकर, मानव क्यूँ पछताता है ।
वायु भी विकराल काल सी चलती है खा जाने को,
चीख रहे हैं लोग हज़ारों, अपने प्राण बचाने को ।
यह प्रकृति का कोप है कोई हमको सबक़ सिखाने को,
या मानव ही दोषी है खुद अपनी मृत्यु बुलाने को ।
ख़ाली कर ममता का अंचल, दुष्ट शिशु रोता है,
पाकर कुछ ना शेष कहीं, अपना आपा खोता है ।
लेकर प्राण, बनाकर भोजन, औरों को खाता है,
किंतु बना आहार स्वयं तो, अब क्यूँ पछताता है ।
तृप्त करो जठराग्नि काल की, उसको भी खाने दो,
मर जाने दो मानव को, एक युग नवीन आने दो ।
पुनः धरा को उसका खोया सा स्वरूप पाने दो,
विष की बेलें काट पुनः अमृत को लहराने दो ।