वह किसान अन्य था, प्रबुद्ध और धन्य था ।
उस कृषक को भुलता, यह किसान अन्य है ।
जो सबल है, सृष्टि उसकी चारणी बनी खड़ी ।
और निर्बलों के पास योजनाएँ हैं बड़ी ।
अब भला किसान का किस तरह विकास हो ।
लौह कामगार पर क्यों नहीं प्रकाश हो ।
मानता हूँ, थे कभी किसान देश पालते ।
पर वही किसान निज विकास को हैं टालते ।
झेलते अनीति और न्याय से हैं भागते ।
काश ये किसान इन कुरीतियों को त्यागते ।
कह रहे इसी तरह जियेंगे हम अनंत तक ।
अब तो इनको लूटते हैं नेता और संत तक ।
जो किसान है नहीं, किसान गीत गा रहा ।
खाट टाँग, भीख माँग जो इन्हें लुभा रहा ।
जो स्वयं को मात्र, इनका रहनुमा बता रहा ।
जो इन्हें विनाश की कगार पर बुला रहा ।
स्वार्थ सिद्धि हेतु मात्र जो इन्हें लुभा रहा ।
उस पतित पिशाच के अधर्म का विनाश हो ।
और देवभूमि पर सुनीति का प्रकाश हो ।
और कुछ कृतघ्न है, इन्ही का अन्न खा रहे ।
और इनको मूल्य भी उचित नहीं चुका रहे ।
चाकरी को श्रेष्ठ, इनको नीचतम बता रहे ।
अन्नहीन हो क्षुधा की तृप्ति को मरेंगे वो ।
ना रहे किसान तो उपाय क्या करेंगे वो ।
रोगयुक्त अन्न मात्र देह बेच खाएँगे ।
और काल की क्षुधा की अग्नि फिर बुझाएँगे ।