ज्ञात है किसको यहाँ कि कौन हूँ मैं ?
रक्तरंजित है हृदय, पर मौन हूँ मैं ।
राम सा स्वभाव है ना कृष्ण सा छल ।
हूँ उपासक रुद्र का मन घोर अविचल ।
है भले इस विश्व को संताप घेरे ।
दूर है मुझसे, ना आता पास मेरे ।
स्नेह से वंचित हृदय का ताप लेकर ।
जन्म से ही मृत्यु का अभिशाप लेकर ।
चल रहा हूँ मैं अनवरत विश्व वन में ।
किन्तु है ना दूसरों से द्वेष मन में ।
जन्म से आसक्ति है ना मृत्यु का डर ।
जीत ना सकते मुझे धन मात्र देकर ।
सत्य का हूँ मित्र, नाशक हूँ अनय का ।
नाम से कोमल, निशाचर हूँ हृदय का ।
तुम जा रहे जिस राह पर मैं चल चुका हूँ ।
देखी ना होगी आग जिसमें जल चुका हूँ ।
मैं चीरकर आया कई जंगल, अंधेरे ।
यूँ ही नहीं मिलते तुम्हें पदचिन्ह मेरे ।
अन्याय से विक्षुब्ध जन की चेतना हूँ ।
मैं युद्ध का शोणित, हृदय की वेदना हूँ ।
मैं पूछता हूँ प्रश्न जो विष-बाण से हैं ।
किंतु हृदय में भाव जन कल्याण के हैं ।
कितने कुटिल मुझसे निरंतर रुष्ट होंगे ।
फिर कार्य सिद्धि से वही संतुष्ट होंगे ।
इन दोलकों के मध्य का आधार हूँ मैं ।
समभाव से स्थिर हृदय का द्वार हूँ मैं ।