विश्व में जो अग्रणी थी,देवभूमि या कि,
स्वर्ग ही धरा पे थी स्वयं, पता नहीं ।
उस भूमि को भारती पुकारते है कोटि जन,
वो भारती मलिन कैसे हो गयी ।
जो कभी थी अग्रणी वो खंड खंड हो,
शिकस्त झेल कर, निढाल है कहीं पड़ी ।
थे प्रबल सपूत जिसके ज्ञानवान वीर-धीर,
शेष है क्या, प्रीति मातृभूमि की ।
चीख़कर प्रत्येक क्षण जो श्रेष्ठ कह रहे स्वयं को,
बेचते हैं अस्मतें ईमान भी ।
फाड़ते हैं वस्त्र एक दूसरे के बेवजह,
जो स्नेह बाँटते है स्वार्थ में वही ।
वासना से युक्त, धर्मभ्रष्ट हो,
प्रत्येक दिन उठा रहे धर्म-ध्वजा उन्हें नमन ।
मूक हो, बधिर बने जो झेलते अनीति को,
बिता रहे नरक यहीं, उन्हें नमन
पीटकर जो मार डालते हैं बेगुनाह को,
हैं न्याय की कथा वही बता रहे ।
राम के लिए लहू बहा रहे निरीह का,
वो राम की कथा स्वयं भुला रहे ।
और कुछ स्वधर्म को विषाक्त कर,
ये धर्म विष समस्त देवभूमि को पिला रहे ।
पाशविक प्रवृति के मनुज यहाँ एकत्र हो,
यदा कदा शृगाल गीत गा रहे ।