गणतंत्र

था पूछ रहा एक चौराहा अपने हमदम कुछ रस्तों से ।

कुछ शोर सुना है कल हमने, कुछ स्वयंभू वतनपरस्तों से ।

की इन गलियों से होकर कल गणतंत्र गुज़रने वाला है ।

मैं सोंच रहा था कब से की, ऐसा क्या होने वाला है ।

गुज़रें हैं लाख मुसाफ़िर फिर भी फ़र्क़ हमें क्या पड़ता है ।

हम पददलितों को तो हरदम ठोकर ही खाना पड़ता है ।

पर कल की बात है और, हमें कल प्रश्न किसी से करना है ।

आख़िर हमको भी तिल-तिल कर इस देश की ख़ातिर मरना है ।

वह रात गयी, फिर दिन आया, अब चहल-पहल कुछ ज़्यादा थी ।

फिर निकल पड़ी वह बात जो कबसे चलने को आमादा थी ।

चौराहा सबकुछ बोल चुका, अबकी रस्तों की बारी थी ।

कुछ प्रश्नों की टोली निकली जो उत्तर की अधिकारी थी ।

क्या हम पददलितों के रग में, बहता है जो, वह लहू नहीं ।

यह, देश की जनता, क्या है ? इसके रग है जो, लहू वही ।

क्या नेतागण की टोली है ? कुछ लोगों की हमजोली है ?

या है बनियों की इक दुकान, जिसमें रक्खा है कुछ समान ।

जो शायद नोटों की गड्डी, या धन की कोई डेरी है ।

और बनियों में है युद्ध ठना, ये तेरी है या मेरी है ?

इस छीन-छपट में तो अक्सर जनता ही मारी जाती है ।

जिसके उद्गम का पता नहीं, हरदम दुत्कारी जाती है ।

प्रश्नों की छोटी सी टोली रथ के पहियों में कुचल गयी ।

राहों-चौराहों के प्रश्नों की सारी हेकड़ निकल गयी ।

वे भूल गये गणतंत्र है क्या, बस याद उन्हें ये आता है ।

हम भारत माँ के बच्चे है, हम सबकी भारत माता है ।

जो बैठी है उस कोने में छोटी सी उलझन लिये हुए ।

मैं जज़्बातों को दबा रही, तो आँसू कौन बहाता है ।